Tuesday 21 June 2016

हिंदी सिनेमा के गीतों के साहित्यिक महत्व पर केन्द्रित दो साक्षात्कार

मैनेजर पांडेय और अजित कुमार से प्रियंका की बातचीत

हिन्दी सिनेमा के गीतों के साहित्यिक मूल्यांकन का सवाल हाशिये का सवाल रहा है । हिन्दी सिनेमा के गीत रचनात्मकबहुआयामीलोकप्रिय और प्रभावी होकर भी साहित्यिक आलोचना से निर्वासित रहे हैं । ‘हिंदी सिनेमा के गीतों का साहित्यिक महत्व’ विषय पर शोध कार्य करते हुएमेरे सामने एक बड़ी चुनौतीइस विषय पर हिन्दी आलोचकों की वैचारिक अनुपस्थिति से निपटने की थी । कुछ एक अपवादों को छोड़करहिन्दी आलोचकों ने हमेशा से हिंदी सिनेमा के गीतों को गंभीर चर्चा का विषय मानना तो दूर उल्लेख मात्र के योग्य भी नहीं समझा है ।
मैंने अपने शोध कार्य (2013-2014) के दौरान कुछ आलोचकों से सम्पर्क करने की कोशिश की थी । मुझे अच्छी तरह याद है कि हिन्दी के प्रतिष्ठित कवि आलोचक अशोक वाजपेयी ने बिना झिझकइस विषय में अपनी अरूचि और शास्त्रीय संगीत के प्रति अपनी आस्था प्रकट करते हुएसाक्षात्कार देने से मना कर दिया था । मैनेजर पाण्डेय और अजित कुमार ने ऐसी ही नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दी थीइसलिए उनसे बातचीत कर पाना संभव हो सका था ।
वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पाण्डेय कविता के मर्मज्ञ रहे हैं । भक्तिकालीन कवियों पर इनका काम महत्वपूर्ण माना जाता है । अजित कुमार कवि होने के साथ-साथ कविताओं के संकलन- संपादन और आलोचना से भी सम्बद्ध रहे हैं । प्रस्तुत साक्षात्कारों के माध्यम से हिन्दी सिनेमा के गीतों के साहित्यिक महत्त्व पर इन दोनों आलोचकों के विचारों की मुखर अभिव्यक्ति  हुई है । मैंने अपने शोध कार्य में शैलेन्द्र के गीतों का विशेष संदर्भ लिया थाइसलिए साक्षात्कार के कुछ सवाल शैलेन्द्र के रचना कर्म पर एकाग्र हैं । वास्तव में शैलेन्द्र एक उदाहरण मात्र हैंं, उनकी जगह निस्संकोच हसरत, साहिर, कैफी, प्रदीप, नीरज, गुलजार या जनमानस में बसे किसी अन्य गीतकार को रखा जा सकता है ।
प्रस्तुत साक्षात्कारों में व्यक्त विचार आलोचना से परे नहीं हैं । इन पर आलोचनात्मक दृष्टिकोण से विचार करने की भरपूर संभावनाएँ हैंलेकिन इन आलोचकों के द्वारा हिन्दी सिनेमा के गीतों के संदर्भ में व्यक्त विचारों का हिन्दी सिनेमा के गीतों से सम्बद्ध आगामी शोधकार्यों के लिए ‘दस्तावेज़ी महत्त्व’ असंदिग्ध है ।


साक्षात्कार-1

हिन्दी सिनेमा और साहित्य के बीच गंभीर सम्बन्ध कभी विकसित ही नहीं हुआ
मैनेजर पाण्डेय से बातचीत*


सिनेमा और सिनेमा के गीतों के विषय में आपकी क्या राय है ?
बारीक बात बाद में । मुझसे एक बार फ़िल्मीं जगत के अनुभव सुना रहे थे कमलेश्वरतो मैंने पूछा कि अब आपने फ़िल्मों के लिए लिखना छोड़ा क्यूँ , तो कमलेश्वर बोले कि जब तक मैं उसमें अपने को सहज महसूस करता था तब तक तो रहना ठीक लगा लेकिन अब... उन्होंने कहा कि गीत से लेकर संवाद तक डायरेक्टर मुझसे कहते थे कि कोई ऐसी सिचुएशन क्रिएट कीजिये जिसमें कि हीरोइन को कमर लचकाने का मौका होतो उन्होंने कहा कि मैंने छोड़ दियाये मुझसे नहीं होगा । ये तो हो गयी मोटी बातअब बारीक़ बात- मैं यह कहता हूँ कि फ़िल्मी गीत लिखने की प्रक्रिया में डायरेक्टर का हाथ अधिक रहता है । ऐसे कम गीतकार हैं, जैसे कैफ़ी आज़मी थेसाहिर लुधियानवी थेशैलेन्द्र थे वगैरह-वगैरह जो कि तीन स्थितियों से गुजरने के बाद गीत लिखते थे- पहला- कहानी सुनते थे और तब तय करते थे कि हम इसमें रहेंगे या नहीं रहेंगे । अब मान लो की कहानी ही दो कौड़ी की हो तो उसमें कोई गीत या संवाद क्या लिखेगा ! दूसरा- सिचुएशन को देखते थेकि फ़िल्म में दृश्य क्या है, उसके अनुसार अगर स्वीकार कर लिया तो गीत लिखते थे । तीसरी बात ये है कि गीतों के दो स्रोत हैं – एक देशभर की हर मातृभाषा में लोकगीत होते हैं जितने भी गंभीर लेखक और सीरियस गीतकार हैं वो उन लोकगीतों की मदद से अपने गीत रचते थे जो की शैलेन्द्र के यहाँ बहुत है । ध्यान देने की बात ये भी है कि शैलेन्द्र पहले इप्टा में थेरेलवे में एम्प्लॉय भी थे । तो इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े होने के कारण उनका एक प्रगतिशील दृष्टिकोण था । ये उनकी कविताओं से साबित होता है और गीतों से भी साबित होता है । शैलेन्द्र दो स्रोतों से अपने गीतों की रचना की सामग्री जुटाते थे- एक लोकजीवनलोकचेतना और लोकगीत । दूसरा सोच विचार की प्रक्रिया सेजीवन जगत के बारे में अपने अनुभव से । इससे उनके गीतों का स्वरुप बनता था । अब यह तो हर फ़िल्मी गीतकार की मजबूरी है और उसका गुण भी कि गीत ऐसा लिखे जो सहज हो । शैलेन्द्र तो कवितायें भी वैसी ही लिखते थेइसलिए कवि शैलेन्द्र और गीतकार शैलेन्द्र में बुनियादी एकता  है ।

कवि और गीतकार शैलेन्द्र को साहित्य में तो फिर भी कभी पहचान नहीं मिल पाई जबकि उन्होंने गीत भी वैसे ही लिखे जैसी कि वे कवितायें लिखते थे ।
शैलेन्द्र के कुछ गीत ऐसे भी हैं जो उनके पहले के गीत हैं वो फ़िल्मों के लिए नहीं लिखे थे उन्होंने, जैसे – ‘तू जिंदा है तो ज़िन्दगी की जीत में  यकीन कर’ ये गीत बहुत पहले का हैबाद में किसी फ़िल्म में फिट किया गया है ।

जब तक वे प्रलेस में थेइप्टा से जुड़े हुए थे तब तक सहित्य में उन्हें जाना गयाजैसे ही उन्होंने सिनेमा के लिए गीत लिखना शुरू किया साहित्य जगत से वे अलग-थलग क्यों कर दिये गये ? उनके इन गीतों को साहित्यिक महत्त्व का क्यों नहीं माना गया ? 
कवि के रूप में भी मेरी जानकारी में शैलन्द्र पर किसी आलोचक ने लेख तो छोड़ो उनका उल्लेख तक नहीं किया । ये अलग बात है कि जब वे इप्टा में थे तो उनके गीत सम्मेलनों में गाए जाते थे । फिर उनका एक संग्रह भी छपा ‘न्यौता और चुनौतियाँ’ नाम सेलेकिन फ़िल्मीं गीतों के साथ दिक्कत ये है कि हिंदुस्तान में साहित्य और सिनेमा के बीच गंभीर सम्बन्ध कभी विकसित ही नहीं हुआ उदाहरण के लिए मुझे दो भाषाओं की फ़िल्मों का थोड़ा ज्ञान है हिंदी के आलावा, बंगला और मलयालम का । बंगला में फिल्म वाले जो लोग थेवे स्वयं साहित्यकार थे और साहित्य में उनकी चर्चा कई तरह से होती हैयही स्थिति थोड़ी-थोड़ी मलायलम फ़िल्मों में भी है लेकिन हिंदी में यह प्रवृति नहीं है । मूल बात ये है कि हिंदी में फ़िल्मों और साहित्य के बीच गंभीर संवाद और सम्बन्ध की स्थिति कभी बनी ही नहीं । तो उसका परिणाम यह हुआ कि जो फ़िल्मों के लिए गीत लिखते थे उनको साहित्य वाले महत्त्व नहीं देते थेउनकी चर्चा भी नहीं करते थे और जो गीतकार थे फिर वे भी धीरे-धीरे साहित्य की दुनिया से कटने लगे । शैलेन्द्र भी इस प्रक्रिया का शिकार हुए क्योंकि यह एक व्यापक प्रक्रिया फिल्म और साहित्य के बीच सम्बन्ध के आभाव की है । उसके शिकार वे भी हुएसाहिर लुधियानवी भी हुएमजरूह सुल्तानपुरी भी हुए और बहुत सारे लोग हुए ।

आप सिनेमा के गीत सुनते हैं ? ऐसे कुछ गीत जो आपको पसंद हों ?
गीत अलग से तो मैं नहीं सुनता लेकिन जो फ़िल्में देखी हैं उनमें जो गीत सुने हैं वह भी तो गीत सुनना ही हुआ ना । ‘सजनवा बैरी हो गए हमार’ यह गीत है शैलेन्द्र का इस गीत को पढ़कर ही लगता है कि जैसे कबीर का गीत हो ‘चिठिया हो तो हर कोई बाँचे हाल ना बाँचे कोय’ ये लगभग उसी अंदाज़ का गीत है जो कबीर का है मीरा का है । ‘तू जिंदा है तो ज़िन्दगी की जीत पर यकीन कर’ अब यह मजदूर संगठन का गीत हैज़िन्दगी के संघर्ष में उम्मीद जगाने वाला गीत है । कौन कवि किधर से शब्दावलीभाषाप्रेरणा लेता है इससे भी गीतों का साहित्यिक महत्त्व बनता है । अच्छा, ऐसे भी गीत हैं जो फिल्म में अच्छे लगे लेकिन बाहर वो उतने अच्छे नहीं लगे । माने टेक्स्ट के रूप में । “प्यासा” फ़िल्म का एक गीत है -  ‘जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं’ । यह गीत जब फिल्माया गया तब तो बहुत प्रभावशाली हैलेकिन अलग से यह गीत लेकर पाठ के रूप में पढ़ें तो वो उतना महत्त्वपूर्ण नहीं लगेगा । इसलिए गीत की साहित्यिकता तय करते हुए यह ध्यान में रखना होगा कि संगीत के साथ होने पर उसकी साहित्यिकता ज्यादा महत्त्वपूर्ण है या संगीत और दृश्य के साथ । कभी-कभी फ़िल्मी गीतों को महत्त्वपूर्ण बनाने में संगीतकारों का भी बहुत महत्त्व रहा जैसे खय्याम हैंनौशाद हैं ।

आपको नहीं लगता की साहित्य में इन सिनेमा के गीतों पर भी चर्चा होनी चाहिए ?                   
बिलकुल होनी चाहिए । क्यों नहीं होनी चाहिए !

तो क्यों नहीं हुई या होती  ?
अब क्यों नहीं होती ये तो वही जाने जो नहीं करते !

आपको नहीं लगता की आलोचकों को इस और ध्यान देना चाहिए ?
ओह हो! मैंने तो कहा न तुमसे कि शैलेन्द्र का तो लोग उल्लेख तक नहीं करतेमैंने तो लेख लिखा है उनपर । तो अब मैं क्या कह सकता हूँ !

भाषा के स्तर पर हिंदी को समृद्ध करने का कामदेशों-विदेशीं तक पहुचांने का काम हिंदी सिनेमा के गीतों ने किया , आपकी क्या राय है ?
ये कोई साहित्यिक महत्त्व नहींयह भाषा के स्तर पर है इससे साहित्य का कोई प्रतिमान या आधार तो नहीं बनेगा ! इंग्लिश स्पीकिंग एरिया में भी हिंदी को पहुँचाने का काम फ़िल्मीं गीतों ने किया है तो ये भाषा के स्तर पर उनका योगदान है, पर साहित्यिक मामला यह नहीं है ।

जिस प्रकार कविताओं की आलोचनाएँ या चर्चाएँ होती हैंउसी प्रकार गीतों पर भी चर्चा हो तो आपको नहीं लगता कि उनका स्तर और अधिक सुधर सकता है ?
किसी भी चर्चा से गीतों का स्तर सुधर नहीं सकताक्योंकि वो सारा व्यवसाय का मामला है । गीतकार निर्देशक के जब इस इशारे पर गीत लिखेगा की एक्ट्रेस नाचे- कूदे ,कमर लचकाए तो गीतकार भी ऐसे ही गीत लिखेगा ना । क्योंकि उसको पैसा मिलना है । फ़िल्म का सारा माध्यम एक भारी व्यवसाय है । व्यावसायिकता ने घुसकर हर चीज़ को नष्ट किया है । सिनेमा के गीतों पर ऐसा नहीं है कि तुम पहली हो जो काम कर रही होइससे पहले भी विभिन्न विश्वविद्यालयों में फ़िल्मीं गीतों पर काम हुआ है । थोडा काम तो हुआ है लेकिन चूँकि साहित्य में इसकी चर्चा नहीं होतीपत्र-पत्रिकाओं में नहीं होतीआलोचनाओं में नहीं होती तो तुम थीसिस लिखोगी और उसके दो ही हश्र हो सकते हैं- या तो पड़ी रहे लाइब्रेरी में और तुम्हारे पास होनहीं तो छप जाये और दो चार मित्र लोग पढ़ लें । इसलिए खाली रिसर्च से वो संवाद नहीं बन पातानहीं तो रिसर्च तो बहुत लोगों ने किया है ।

पुराने गीतों और नए गीतों में कोई बुनियादी अंतर जो आपको लगता  हो ?
आज के निन्यानवे प्रतिशत गीत रद्दी हैं । पुराने गीत-संगीतफ़िल्म तक सामाजिक उद्देश्य को ध्यान में रखकर लिखे जाते थे आज तो कुछ भी नहीं है । हाल के वर्षों में अधिकांश फ़िल्में देखना मैंने बंद कर दिया है । पुरानी फ़िल्में हर दृष्टि से बेहतर हैं गीतों की दृष्टि सेलिखने वालों की दृष्टि सेसंगीत की दृष्टि से । आज तो संगीत के नाम पर म्यूजिक कम और शोर ज्यादा है । 
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*तिथि-  23 फरवरी 2014 / स्थान- नयी दिल्ली 


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साक्षात्कार-2

साहित्य के प्रति शुद्धतावादी दृष्टिकोण सिनेमा के गीतों की साहित्यिक उपेक्षा का कारण है
अजित कुमार से बातचीत**



अजित कुमार को फोन पर मैंने अपने शोध विषय के बारे में बताया था । उनसे मिलने पर अनौपचारिक संवाद के बाद, बातचीत पहले उन्होंने ही शुरू की ।
जो चीज़े हमारी चेतना में नयी-नयी जुड़ती जाती हैं उनको हम अपनी संवेदना से सम्बद्ध करें वो सम्बद्ध करना ही हमें एक नयी दृष्टि दे सकता है । ऐसा तो नहीं है कि जो हम चार हज़ार साल पहले थे आज भी वैसे ही हैं, इस बीच में दुनिया बहुत बदली है और बहुत सी नयी चीज़े आ गयीं हैं । अगर हम किसी चीज़ को यही करते रहेंगे कि जो पुराना है उसी के आलोक में हम सबकुछ देखें तो हमारा दृष्टिकोण और चीज़ों की समझ-बूझ सीमित हो जाएगी। नयी-नयी चीज़े जैसे मान लो कि एडवरटाइज़मेंट है वो क्यों नहीं हमारी साहित्यिक संवेदना को और अधिक समृद्ध कर सकता ? मेरा सवाल ये है कि हम चीज़ों को एक्सक्लूड (exclude) करें या चीज़ों को इनक्लूड (include) करें, ये दो दृष्टिकोण हैं । मेरा दृष्टिकोण इसमें ये है कि जो नयी-नयी चीज़ें आ रही हैं उनको हम शामिल करते जाएं और अपनी चेतना के अंतर्बोध के धरातल का हम विस्तार करें और उसमें कविता को लायें । मान लो जैसे रघुवीर सहाय की कविता है- “निर्धन जनता का शोषण है कहकर आप हंसे / चारों और बड़ी लाचारी कहकर आप हंसे / कितने आप अकेले होंगे मैं सोचने लगा / तभी मुझको अकेला पाकर फिर से आप हंसे ।”
ये राजनेताओं पर व्यंग है, कटाक्ष है लेकिन मैं समझता हूँ कि यह कविता की संभावनाओं को बढ़ाता है बजाय इसके कि हम यह कहें कि यह पत्रकारिता है और पत्रकारिता को हम घटिया दर्जे की चीज़ माने और साहित्यिकता को हम विशेष दर्जे में रखें । यह भी एक दृष्टिकोण है पुराने पंडितों का जो आचार्य लोग हैं, उनका यही दृष्टिकोण है कि चीज़ें अपनी शुद्धता में रहें । लेकिन अगर आप देखें तो शुद्धता की परिकल्पना एक कल्पना मात्र है । हजारी प्रसाद द्विवेदी को अगर आप पढ़ें तो वो कहते हैं कि सबकुछ मिश्रण है । खासकर हिंदुस्तान जैसे देश में जिसमें कि विभिन्न जातियां आयीं सबका मिश्रण हुआ और यह अकारण नहीं कहा जाता की यहाँ यूनिटी इन डाइवर्सिटी (unity in diversity) यानि अनेकता में एकता है । तो अगर हम अनेकता में एकता के विचार को स्वीकार करते हैं तो साहित्य के सन्दर्भ में भी हमें उस अनेकता के विचार को शामिल करना चाहिए मेरा विचार यही है ।

सिनेमा के गीतों को आप किस नज़र से देखते हैं ? और क्या साहित्य में इनपर विचार होना चाहिए ?
मैंने तो हमेशा इनका स्वागत किया है, बस ये है कि उनका कुछ अभिप्राय होना चाहिए ।

सिनेमा के कुछ गीत जो आपको पसंद हों ?
पुराने ज़माने के तमाम गीतों को हमने पसंद किया है जैसे ये गीत है ‘सुनो छोटी सी गुड़िया की लम्बी कहानी’ यह गीत मुझे बेहद पसंद है । ‘तीसरी कसम’ के तमाम गीत मुझे बहुत पसंद हैं खासकर ‘सजनवा बैरी हो गए हमार’ और ‘चलत मुसाफिर मोह लियो रे पिंजरे वाली मुनिया’, या एक और गीत है- ‘गंगा आये कहाँ से गंगा जाये कहाँ रे’ यह बहुत सुन्दर गीत है ।

सिनेमा के गीतों का जनमानस पर कैसा प्रभाव रहा है ?
 दुबई में मैं एक प्रोग्राम में गया था वहां रह रहे भारतीय एक ग्रुप चलाते हैं, जिसमें  कि आये दिन वे लोग कार्यक्रम आयोजित करते रहते हैं और उस कार्यक्रम में हिंदी फ़िल्मों के गीत सुने और गाये जाते हैं । वहां मैंने जाना कि पूरे दुबई का एक पढ़ा-लिखा वर्ग फ़िल्मीं गीतों के माध्यम से अपनी भारतीय संस्कृति को बचाए हुए है और अपनी आइडेंटिटी ( Identity) को कायम रखे हुए है । और यही बात अमरीका में भी देखी जा सकती है । तो इंडिया अवे फ्राम इंडिया, होम अवे फ्राम होम(India away from india, Home away from home) ये जो एक बात है इसको बनाये रखने में हिंदी के फ़िल्मी गीतों ने बहुत बड़ी भूमिका निभायी है । रूस में जाओ, तुर्की में जाओ सब जगह यही मिलता है । राजकपूर का तो मशहूर ही है कि ‘मेरा जूता है जापानी’ रूस में उनकी विशिष्ट पहचान बन गया था ।

आपको यदि कहा जाये कि सिनेमा के गीतों पर आपको आलोचना लिखनी है या लेख लिखना है तो आप कौन से गीतों, गीतकारों को शामिल करेंगे ?
एक तो मैं लिख ही नहीं पाऊंगा इस विषय पर लेकिन फ़िल्में देखना, गीत सुनना मुझे बेहद पसंद रहा है । ऑफलाइन अभी मैं कोई कमेंट नहीं कर सकता बाद में सोचकर जरुर करूँगा क्योंकि मेरा दृष्टिकोण यही है कि इन्हें  एक्सप्लोर (Explore) करना चाहिए । मैंने बहुत एन्जॉय किया फ़िल्मीं गीतों को और मेरा मानना है कि इनका बहुत सामाजिक महत्त्व है, शैक्षिक महत्त्व है और सबसे बड़ी बात है कि भाषा शिक्षण में फ़िल्मीं गीतों से उपयोगी कोई और विधा नहीं रही ।

आपकी नज़र में इसके क्या कारण रहे कि सिनेमा के गीतों और गीतकारों को साहित्य में उपेक्षा की दृष्टि से ही देखा गया ?
साहित्य के प्रति शुद्धतावादी दृष्टिकोण रखने वाले लोगों के कारण ही ऐसा हुआ । अब तुम काम कर रही हो चुनौती को स्वीकार किया अच्छा है, भले ही थोड़ा कन्ट्रोवर्शियल (controversial) हो जाये लेकिन काम सेटिसफेक्ट्री (satisfactory) होना चाहिए और हो सकता है इससे कुछ परिवर्तन आये और हिंदी में रिसर्च को लेकर जो धारणा है कि दस किताबों को मिलाकर एक ग्यारहवीं किताब बना दी जाती है उसी को हिंदी में रिसर्च कहते हैं यह धारणा भी टूट सके । तुम्हें इसपर चर्चा के लिए मंच तैयार करना  है ।

हिंदी कविता के ऐसे कौन से तत्त्व हैं जो सिनेमा के गीतों में नहीं दिखाई पड़ते ?
हिंदी कविताओं में अमूर्तन है, असपष्टता है, गूढ़ता है जैसे जो शमशेर की कविताओं में है मुक्तिबोध की कविताओं में है वो हिंदी के गीतों में नहीं आ पाई । हिंदी के तमाम कठिन कवियों में अस्पष्टता, गूढ़ता, एक विशेष प्रकार की रहस्यमयता है कि शब्द सब समझ में आ रहे हैं लेकिन अर्थ स्पष्ट नहीं हो रहा ये विशेष प्रकार की चीज़ है जो हिंदी फिल्मीं गीतों में नहीं आ पाई है ।

किसी कृति के महत्त्व को स्थापित करने के लिए साहित्य के ऐसे कौन से ऐसे मानदंड हैं जिनका हमें प्रयोग करना चाहिए ?
इसके लिए बहुत से मानदंड हैं जैसे कि जो हमारे शास्त्रीय सिद्धांत हैं उनकी कसौटी पर कविता कितनी खरी उतरती है, रस की कसौटी है, अलंकार की कसौटी है एक ये मानदंड है दूसरा कि भाषिक शुद्धता उनमें कितनी है, एक ये है कि मार्मिकता कितनी है, अनुभूति की सच्चाई कितनी है यानि कि अनुभूति की प्रमाणिकता उनमें है या नहीं, समाज से सम्बद्धता कितनी है अपने समय की राजनीति के प्रति कितनी समझदारी है ये तमाम मानदंड हैं उसमें आपके अंतर्मन में देखे हुए स्वप्नों की कितनी अभिव्यक्ति हुई है, आपकी कविता में आपके भीतर का रहस्य कितना अनावृत हुआ एक ये कसौटी है, कितनी मार्मिक चेतना है, कितनी संवेदनशीलता है, कितनी साझेदारी आप कर सकते हैं, तादात्म्य कितना स्थापित कर सकते हैं, दूसरे लोगों के साथ कितना जुड़ाव उसका हो सकता है, कितना वो आपको छूती है यही सब बहुत से मानदंड हैं अलग-अलग समय में अलग-अलग मानदंड बनाये गए और वो सारे मानदंड प्रासंगिक हो सकते हैं कभी किसी लिए कुछ कभी किसी के लिए कुछ । एक युग में एक मानदंड होता है दूसरे युग में दूसरा । ये एक तरीके का रसायन जो कई सारे मिश्रणों से मिलकर बना है और अब नए युग में भी निरंतर समय के बदलाव के साथ-साथ नए-नए मानदंड विकसित हो रहे हैं ।
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** तिथि-  26 फरवरी 2014 / स्थान- नयी दिल्ली  

[दोनों ही साक्षात्कारों में मेरी दोस्त और एम.ए. के दिनों की मेरी सहपाठी राखी साहू मेरे साथ थी । मेरे साथ चलने के प्रस्ताव को उसने तुरंत जिस प्रसन्नता और उत्साह के साथ स्वीकार कर लिया था, उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता । उसके साथ रहने भर से बहुत सुविधा हुई । राखी का बहुत आभार ।]

['साहित्य कुंज' के जून (द्वितीय) 2016 अंक में प्रकाशित]


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